ये भी मौसम अजीब मौसम है उस से बिछड़े हैं और दुख कम है मुस्तक़िल उस को याद करता हूँ मुस्तक़िल एक सा ही आलम है एक चेहरा है जिस को देखता हूँ एक आवाज़ है जो पैहम है तुम भी उस की निशानियाँ सुन लो लहजा ख़ुश्बू है बात शबनम है चीख़ता हूँ उसे बुलाने को और आवाज़ फिर भी मद्धम है सोचता हूँ कि मैं नहीं रोता और मिरी आँख में बड़ा नम है वैसे ही रास्ते हैं सारे मगर साथ चलता था जो वही कम है कोई मिलता नहीं मोहब्बत को इक अजब फुर्क़तों का आलम है मुझ से ये ग़म सहा नहीं जाता ग़ालिबन मुझ को अब बहुत ग़म है