ये दश्त-ए-शौक़ का लम्बा सफ़र अच्छा नहीं लगता मगर ठहरूँ कहाँ कोई शजर अच्छा नहीं लगता यही इक बात अब मैं सोचता रहता हूँ ख़ल्वत में न जाने क्यूँ मुझे अब तेरा दर अच्छा नहीं लगता करम करते नहीं क्यूँ तुम मिरे क़ल्ब-ए-शिकस्ता पर मिरा यूँ ग़म-ज़दा रहना अगर अच्छा नहीं लगता निगाहों से जो ओझल उस गुल-ए-रअना का जल्वा है ये रंग-ए-शाम ये रंग-ए-सहर अच्छा नहीं लगता उधर वो भी बिछड़ के हम से खोए खोए रहते हैं अकेला मुझ को भी रहना इधर अच्छा नहीं लगता उठी है जब से ये दीवार-ए-नफ़रत दल के आँगन में मुझे ऐ दोस्तो ख़ुद अपना घर अच्छा नहीं लगता