ये दौर-ए-तरक़्क़ी है रिफ़अत का ज़माना है ज़र्रों को उठाना है तारों से मिलाना है आग़ोश-ए-तसव्वुर है और नक़्श-ए-जमील उन का दूरी है न मजबूरी आना है न जाना है नैरंग-ए-मोहब्बत है हर राज़ मिरे दिल का चुप हूँ तो हक़ीक़त है कह दूँ तो फ़साना है अरमान-ए-तजल्ली का कोताह भी कर क़िस्सा ऐ दोस्त तुझे आख़िर इक दिन नज़र आना है क्या शोबदा-सामाँ है 'सीमाब' ज़माना भी हर शख़्स समझता है मेरा ही ज़माना है