ये ग़ज़ल की अंजुमन है ज़रा एहतिमाम कर लो किसी ग़म को मय बना लो किसी दिल को जाम कर लो कहाँ सुब्ह-ए-ग़म का सूरज कहाँ शाम का सितारा इसी रुख़ पे ज़ुल्फ़ बिखरे यही सुब्ह-ओ-शाम कर लो वो हबीब हो कि रहबर वो रक़ीब हो कि रहज़न जो दयार-ए-दिल से गुज़रे उसे हम-कलाम कर लो ये कहाँ के मोहतसिब हैं ये कहाँ की मस्लहत है जो उन्हें नहीं मयस्सर वही शय हराम कर लो