ये ग़म नहीं है कि अब आह-ए-ना-रसा भी नहीं ये क्या हुआ कि मिरे लब पे इल्तिजा भी नहीं सितम है अब भी उमीद-ए-वफ़ा पे जीता है वो कम-नसीब कि शाइस्ता-ए-जफ़ा भी नहीं निगाह-ए-नाज़-ए-इबारत है ज़िंदगी जिस से शरीक-ए-दर्द तो क्या दर्द-आश्ना भी नहीं समझ रहा हूँ अमानत मता-ए-सब्र को मैं अगरचे अब निगह-ए-सब्र-आज़मा भी नहीं वो कारवान-ए-निशात-ओ-तरब कहाँ हमदम जो ढूँढिए तो कहीं कोई नक़्श-ए-पा भी नहीं है दिल के वास्ते शम-ए-उमीद-ओ-मशअ'ल-ओ-राह वो इक निगाह जिसे दिल से वास्ता भी नहीं कोई तबस्सुम-ए-जाँ-बख़्श को तरसता है शहीद-ए-इश्वा-ए-रंगीं का ख़ूँ-बहा भी नहीं ये क्यूँ है शो'ला-ए-बेताब की तरह मुज़्तर मिरी नज़र कि अभी लुत्फ़-आश्ना भी नहीं ब-शक्ल-ए-क़िस्सा-ए-दार-ओ-रसन न हो मशहूर वो इक फ़साना-ए-ग़म तुम ने जो सुना भी नहीं तमाम हर्फ़-ओ-हिकायत मिटा गई दिल से निगाह-ए-नाज़ ने कहने को कुछ कहा भी नहीं वो कुश्ता-ए-करम-ए-यार क्या करे कि जिसे ब-ईं तबाही-ए-दिल शिकवा-ए-जफ़ा भी नहीं