ये घर के भेद हैं कहूँ कैसे ज़बान से क्या दुख मिले हैं मुझ को मेरे भाई-जान से कैफ़े के एक कोने में मसरूफ़ गुफ़्तुगू मग़्मूम बे-हयात बदन बे-ज़बान से ये दिन जो आज बीत गया फिर न आएगा ये तीर भी निकल गया क़ौस-ए-कमान से अच्छे बशर हैं जिन को नहीं ढूँडने की धुन अच्छा ख़ुदा है दूर है वाबस्तगान से उल्टे कुएँ के क़ुत्र में लटका दिए गए उतरे थे दो फ़रिश्ते कभी आसमान से