ये गुल भी ज़ीनत-ए-आग़ोश-ए-दरिया-ए-क़ज़ा निकले जिन्हें हम बा-वफ़ा समझे थे वो भी बेवफ़ा निकले नतीजा जुस्तुजू-ए-शौक़ का क्या जाने क्या निकले पस-ए-पर्दा ये मुमकिन है वही रंगीं-अदा निकले करिश्मा है ये सारा इश्क़ का ही वर्ना कब मुमकिन लहू के क़तरे क़तरे से अनल-हक़ की सदा निकले मता-ए-ज़िंदगी आराम-ए-जाँ सब्र-ओ-क़रार-ए-दिल ख़ुदा की शान है हम उन को क्या समझे वो क्या निकले हुए मजरूह बर्ग-ए-गुल इन्हीं ख़ारों से गुलशन के चमन के पासबाँ ही बानी-ए-जौर-ओ-जफ़ा निकले मआ'ज़-अल्लाह इल्ज़ाम अपनी बर्बादी का ग़ैरों पर डुबोने वाले कश्ती के जब अपने नाख़ुदा निकले करूँ किस का गिला कहते हुए भी शर्म आती है रक़ीब अफ़्सोस अपने ही पुराने आश्ना निकले हमारे बाद वो आए अयादत को तो क्या आए किसी के इस तरह निकले अगर अरमाँ तो क्या निकले बहुत मुश्किल है 'ऐश' इस दौर में निकले कोई हसरत ये क्या कम है कोई दामन अगर अपना बचा निकले