ये इंक़लाब भी ऐ दौर-ए-आसमाँ हो जाए मिरा क़फ़स भी मुक़द्दर से आशियाँ हो जाए मआ'ल-ए-ज़ब्त-ए-फुग़ाँ मर्ग-ए-ना-गहाँ हो जाए किसी तरह तो मुकम्मल ये दास्ताँ हो जाए समझ तो लेंगे वो मुझ से अगर बयाँ हो जाए सुकूत हद से गुज़र जाए तो ज़ियाँ हो जाए क़फ़स से दूर सही मौसम-ए-बहार तो है असीरो आओ ज़रा ज़िक्र-ए-आशियाँ हो जाए दिया है दर्द तो रंग-ए-क़ुबूल दे ऐसा जो अश्क आँख से टपके वो दास्ताँ हो जाए ज़बान-ए-ख़ुश्क भी जुम्बिश में ला नहीं सकते ये बेबसी भी न मिंजुमला-ए-फ़ुग़ाँ हो जाए क़फ़स भी बिगड़ी हुई शक्ल है नशेमन की ये घर जो फिर से सँवर जाए आशियाँ हो जाए निगाह-ए-गर्म से देखो न अश्क-ए-हसरत को ये चाहते हो कि ये ओस भी धुआँ हो जाए हयात नोक-ए-मिज़ा तक है अश्क-ए-रंगीं की पलक ज़रा सी भी झपके तो राएगाँ हो जाए 'सिराज' देख लो बे-आँसुओं के भी रो के ये सई भी न कहीं सई-ए-राएगाँ हो जाए