ये इज़्तिराब देखना ये इंतिशार देखना सहर न हो कहीं ज़रा पस-ए-ग़ुबार देखना ये ख़स्तगी का फ़ैज़ है कि जिस ने आँख मूँद कर सिखा दिया मुझे बदन के आर-पार देखना शिकस्त खा चुके हैं हम मगर अज़ीज़ फ़ातेहो हमारे क़द से कम न हो फ़राज़-ए-दार देखना गुज़र गई जो मौज उस की याद ही फ़ुज़ूल है मगर हो उस का मुड़ के मुझ को बार बार देखना मिरा ख़ुलूस देखना कि महव-ए-इंतिज़ार हूँ उसे भला चुका हूँ कैफ़-ए-इंतिज़ार देखना