ये जाँ-गुदाज़ सफ़र दाम-ए-ख़्वाब हो न कहीं रवाँ है जिस में सफ़ीना सराब हो न कहीं यूँ ही उतरता न जा सर्द गहरे पानी में चमकता है जो बहुत सेहर-ए-आब हो न कहीं खड़ा जो झाँकता है कब से गर्म कमरों में गली में ठिठुरा हुआ माहताब हो न कहीं हवा ये कौन सी चलती है आर-पार मिरे खुला हुआ किसी ख़्वाहिश का बाब हो न कहीं दिलों पे क्यूँ नहीं करतीं असर तिरी बातें ज़मीं तो ठीक है पानी ख़राब हो न कहीं ग़ुबार से भरी बोझल फ़ज़ा है दिल पे मुहीत गरज रहा है जो सर में सहाब हो न कहीं सजाए फिरता है वो जिस को कोट पर 'शाहीं' मिरे ही ख़ूँ का महकता गुलाब हो न कहीं