ये जितनी देर हुई शैख़ को वुज़ू करते हम उतनी देर में ख़ाली ख़ुम-ओ-सुबू करते शिकार भी बत-ए-मय का किनार-ए-जू करते वहीं नमाज़ भी पढ़ते वहीं वुज़ू करते कलीम बात बढ़ाते न गुफ़्तुगू करते लब-ए-ख़मोश से इज़हार-ए-आरज़ू करते हसीन भी हों ख़ुश-आवाज़ भी फ़रिश्ता-ए-क़ब्र कटी है उम्र हसीनों से गुफ़्तुगू करते हमारी भूल का सागर ये गुल अगर बनते तो और रंग से इज़हार-ए-रंग-ओ-बू करते गिराते यूँही सर-ए-तूर बिजलियाँ हम पर अगर हिजाब था पर्दे से गुफ़्तुगू करते ये दाग़-ए-मय हैं बुरे फैलते सर-ए-दामन जो आब-ए-ज़मज़म-ओ-कौसर से हम वुज़ू करते हमें ख़ुदा के सिवा कुछ नज़र नहीं आता निकल गए हैं बहुत दूर जुस्तुजू करते पड़ी है ख़ू-ए-सुबूही दराज़ है शब-ए-गोर उठेंगे हश्र के दिन हम सुबू सुबू करते मसक गया है किसी का ज़रा सा दामन-ए-गुल जगह जगह से सिसकता जो तुम रफ़ू करते ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़-ए-वुज़ू मय जो मिलती पानी सी सियाह-रू भी दम-ए-हश्र शुस्त-ओ-शू करते न था शबाब कमर में 'रियाज़' ज़र होता तो दिन बुढ़ापे के भी नज़्र-ए-लखनऊ करते