ये जो बढ़ती हुई जुदाई है शायद आग़ाज़-ए-बे-वफ़ाई है तू न बदनाम हो उसी ख़ातिर सारी दुनिया से आश्नाई है किस क़दर कश्मकश के बा'द खुला इश्क़ ही इश्क़ से रिहाई है शाम-ए-ग़म मैं तो चाँद हूँ उस का मेरे घर क्या समझ के आई है ज़ख़्म-ए-दिल बे-हिजाब हो के उभर कोई तक़रीब-ए-रू-नुमाई है उठता जाता है हौसलों का भरम इक सहारा शिकस्ता-पाई है जान 'आली' नहीं पड़ी आसाँ मौत रो रो के मुस्कुराई है