ये जो फ़ितरत में ख़ाकसारी है बाइस-ए-फ़ख़्र वज़्अ'-दारी है सिर्फ़ दिल पर नहीं कोई क़ाबू और जो कुछ है इख़्तियारी है कुछ नहीं काएनात इस के सिवा इक तमाशा है इक मदारी है अपने दिल की शिकस्तगी के सबब 'मीर' साहब से रिश्तेदारी है उस का अंजाम ख़ूब है मालूम वक़्त-ए-बे-मेहर से जो प्यारी है क्या ज़माना मिटा सकेगा उसे ये जो उर्दू ज़बाँ हमारी है