ये जो गुल-रू निगार हँसते हैं फ़ित्ना-गर हैं हज़ार हँसते हैं अर्ज़ बोसे की सच न जानो तुम हम तो ऐ गुल-एज़ार हँसते हैं दिल को दे मुफ़्त हँसते हैं हम यूँ जिस तरह शर्मसार हँसते हैं हम जो करते हैं इश्क़ पीरी में ख़ूब-रू बार बार हँसते हैं जो क़दीमी हैं यार दोस्त 'नज़ीर' वो भी बे-इख़्तियार हँसते हैं