ये जो हम अतलस ओ किम-ख़्वाब लिए फिरते हैं अज़्मत-ए-रफ़्ता के आदाब लिए फिरते हैं देख कर उन को लरज़ जाती है हर मौज-ए-बला अपनी कश्ती में जो गिर्दाब लिए फिरते हैं तीर कितने हैं लईं और तिरे तरकश में देख हम सीना-ए-बे-ताब लिए फिरते हैं देखना उन को भी डस लेगी कड़े वक़्त की धूप वो जो कुछ ख़्वाहिश-ए-शादाब लिए फिरते हैं अपनी तहज़ीब का अब कोई तलबगार नहीं बे-सबब हम पर-ए-सुरख़ाब लिए फिरते हैं मेरा भी कासा-ए-ताबीर है ख़ाली ख़ाली वो भी आँखों में कई ख़्वाब लिए फिरते हैं तीरगी शहर-ए-ग़ज़ालाँ से निकलती ही नहीं लाख वो सूरत-ए-महताब लिए फिरते हैं ये तो सदक़ा है 'हुसैन-इब्न-ए-अली' का 'अख़्तर' तिश्नगी हम जो सर-ए-आब लिए फिरते हैं