ये जो हम से दो चार बैठे हैं By Ghazal << मोहब्बतों की मसाफ़त से कट... यार का वस्ल-ए-शबा-शब न हु... >> ये जो हम से दो चार बैठे हैं फ़ित्ना-ए-रोज़गार बैठे हैं तिश्ना-ए-ख़ूँ यही हमारे हैं ये जो बाँध कटार बैठे हैं तेरे कूचे में जैसे नक़्श-ए-क़दम कब से हम ख़ाकसार बैठे हैं ग़ैर के सर पे तेग़ मत खींचो हम तुम्हारे 'निसार' बैठे हैं Share on: