ये जो हर सम्त तिरे नेज़े की शोहरत है बहुत सच तो ये है कि मरे सर की बदौलत है बहुत चश्मा-ए-चशम के पानी से नहीं होगा कुछ ख़ाक-ए-सहरा है इसे ख़ूँ की ज़रूरत है बहुत मैं तो इक आँख हूँ आवाज़ से मुझ को न डरा ये तिरे जलवा-ए-सद-रंग की दहशत है बहुत बुत-ए-मअनी भी मआ'नी के पुजारी भी गए आ कि अब मअ'बद-ए-अल्फ़ाज़ में ख़ल्वत है बहुत ख़ाक ही शहर-ओ-बयाबाँ की अगर दौलत है तो ये आवारा तिरा साहब-ए-सरवत है बहुत