ये जो हम सूरत-ए-अश्जार में उग आते हैं तुम समझते हो कि बे-कार में उग आते हैं हम नहीं देखते ज़रख़ेज़ ज़मीनों की तरफ़ हम वो पौदे हैं जो दीवार में उग आते हैं जितनी रफ़्तार से तुम काटते जाते हो हमें फिर से हम उतनी ही मिक़दार में उग आते हैं जिन को गुल-दान में रखना नहीं आया है हमें फूल वो वहशत-ए-कोहसार में उग आते हैं सब को सरदारी बुज़ुर्गी से नहीं मिलती है ऐसे सर भी हैं जो दस्तार में उग आते हैं अपने औसाफ़ नहीं भूलते 'एहसान' कभी बीज फल फूल जो अश्जार में उग आते हैं