ये जो इंसाँ ख़ुदा का है शहकार उस की क़िस्मत पे है ख़ुदा की मार मर्ग-ए-दुश्मन की आरज़ू ही सही दिल से निकले किसी तरह तो ग़ुबार नाम बदनाम हो चुका हज़रत कीजिए अब तो जुर्म का इक़रार होगा दोनों का ख़ात्मा बिल-ख़ैर अब तसादुम में है न जीत न हार बिक चुकी जिन्स-ए-नादिर-ओ-नायाब हो चुकी ख़त्म गर्मी-ए-बाज़ार इत्तिफ़ाक़ी है दो दिलों का मिलाप कौन सुनता है वर्ना किस की पुकार हुस्न वालों का पूछना क्या है जितने दिलकश हैं उतने दिल-आज़ार जीना मरना है बन पड़े की बात न ये आसान और न वो दुश्वार किस को पर्वा कि इन पे क्या गुज़री ज़िंदगी से जो हो गए बेज़ार मुल्तफ़ित ख़ुद न हो अगर कोई आह बे-सूद और फ़ुग़ाँ बे-कार पुर-सुकूँ नींद चाहते हो 'नज़ीर' साथ लाना था क़िस्मत-ए-बेदार