ये जो मुझ से और जुनूँ से याँ बड़ी जंग होती है देर से सो कुछ ऐसी ढब से लड़ाई है लड़े शेर जैसे कि शेर से बनी शक्ल लैला-ए-नौ-जवाँ मिरे दाता क्या कहूँ अल-अमाँ वो तजल्ली एक जो हुई अयाँ किसी रात क़ैस के ढेर से अभी दो महीने से हूँ जुदा न तो ख़्वाब में भी नज़र पड़ा भला और अंधेर ज़ियादा क्या कहीं होगा ऐसे अंधेर से मुझे शामियाना तले से क्या मिरा दिल तो कहता है मुझ से आ सर-ए-राह कोठे पे बैठ जा यहीं तकिया दे के मुंडेर से तिरी बादले की ये ओढ़नी अरे बर्क़ कौंदे नज़र में तब करे ये घटा जो मुक़ाबला किसी पेशवाज़ के घेर से नहीं इंतिज़ार के हौसले मुझे सूझे सैकड़ों अरतले क़सम उन ने खाई तो है वले मिरा जी डरे है अधेर से भला मुझ से देव के सामने कोई ठोंक सकते हैं ख़म भला अरे ये अंगूठे से आदमी तो बिचारे ख़ुद हैं बटेर से ''वही पी कहाँ वही पी कहाँ'' यही एक रट सी जो है सो है महाराज चोट सी लगती है मुझे इस पपीहे की टेर से ग़ज़ल 'इंशा' और भी एक लिख इसी बहर और रदीफ़ की कि ज़बर की क़ाफ़िए जिस में हों मुझे नफ़रत आ गई ज़ेर से