ये कहो ये न कहो ऐसे कहो ऐसे नहीं सुन ऐ नक़्क़ाद तिरी गोद के हम पाले नहीं हम छिड़े-छाँट यक-ओ-तन्हा अदब का मैदाँ कोई हम-ज़ुल्फ़ नहीं और ससुर साले नहीं मोमिन ओ काफ़िर ओ मुश्रिक न तो मुर्तद मुल्हिद अपने डाँडे तो किसी से भी कहीं मिलते नहीं रूखी-फीकी सी कभी चटनी कहीं सादी सी दाल अपनी ग़ज़लों के मुक़द्दर में सिरी-पाए नहीं बड़ी ना-समझी है हर शय का समझ लेना भी ज़ेहन अफ़्कार से आरी है अगर जाले नहीं तुफ़ है उन आँखों पे जो ख़ुद में उलझ कर रह जाएँ वो निगह क्या जो यहाँ ताके वहाँ झाँके नहीं बे-नियाज़ाना जिए जाते हैं अपनी धुन में बाँकपन खो न कहीं जाए नहीं हाए नहीं