ये कैसे ख़ौफ़ हमें आज फिर सताने लगे हमारे पास रहो तुम कि दिल ठिकाने लगे ग़ुबार-ए-शहर से बाहर तिरी रिफ़ाक़त में सुकूत-ए-शाम के लम्हे बड़े सुहाने लगे कभी जो लौट के आए किसी मसाफ़त से तो अपने शहर के मंज़र वही पुराने लगे सज़ा के ख़ौफ़ से क्यूँ इस क़दर लरज़ता है कर ऐसा जुर्म कि रहमत भी मुस्कुराने लगे ये काएनात तो उजलत में मिल गई थी मुझे मगर तलाश में अपनी कई ज़माने लगे ज़हे नसीब मिरा फ़न मक़ाम पा ही गया हसीन होंट मिरे गीत गुनगुनाने लगे