ये कैसे मोड़ पे इक मेहरबान छोड़ गया हवा के रुख़ पे खुले बादबान छोड़ गया नवादिरात की क़ीमत लगाने निकला था जो आब्दार बदन पर निशान छोड़ गया तमाम लोग जिसे क़ातिलों की सफ़ में रखें वो मेरे सहन में अपनी कमान छोड़ गया दर-ए-दुआ से तमन्नाओं के दरीचे तक वो मेरे वास्ते इक इम्तिहान छोड़ गया पहन लिया है अब उस ने भी शहर का लहजा ये क्या हुआ कि वो अपनी ज़बान छोड़ गया