ये कम नहीं के वही शाम का सितारा है जिसे फ़ज़ीलत-ए-तन्हाई ने उभारा है कहीं सुराग़ नहीं है किसी भी क़ातिल का लहूलुहान मगर शहर का नज़ारा है मैं जा रहा हूँ मुकम्मल वजूद पाने को मुझे भी सूरत-ए-इम्काँ ने अब पुकारा है वो हँस के हर शब-ए-ज़ुल्मात काट देते हैं वो जिन के सीने में अफ़्लाक का सिपारा है चराग़ जलता रहेगा हमेशा उल्फ़त का यही वजूद के अनवार का इशारा है ये कैसी सूरत-ए-महताब खुल रही है मगर ज़मीं पे किस ने इसे अर्श से उतारा है अना-शिकार पे ज़ाहिर ये कब हुआ 'अज़हर' उसे निभाने में तक़दीर का ख़सारा है