ये कौन कहता है तू हल्क़ा-ए-नक़ाब में आ? शुऊर-ए-रंग-ए-वफ़ा बन के आफ़्ताब में आ फ़ज़ा को तू ने मोअत्तर किया तो क्या हासिल? मज़ा तो जब है कि फिर लौट कर गुलाब में आ मैं लफ़्ज़ लफ़्ज़ में तुझ को तलाश करता हूँ सवाल में नहीं आता न आ जवाब में आ घुटा घुटा सा न रह तजरबों के महबस में सरीर-ए-वक़्त की राहों से तू किताब में आ जला के ताक़-ए-अदम में मसर्रतों के चराग़ तू आरज़ू के चमकते हुए सराब में आ फ़लक की हद से परे है तिरी उड़ान तो क्या? मगर कभी कभी धरती के इस अज़ाब में आ अनानियत का नशा बन के छा न महफ़िल पर उतरना है तो उतर कर शराब-ए-नाब में आ 'करामत' आज ज़माना जो दे रहा है दग़ा ज़रा सी बात पे हरगिज़ न इज़्तिराब में आ