ये कौन माने कि ना-आश्ना-ए-राज़ है तू मगर यही कि ख़ुदावंद-ए-बे-नियाज़ है तो उस आस्ताँ पे जो सर है तो सरफ़राज़ है तू नियाज़-मंदी-ए-आलम से बे-नियाज़ है तू समझ में आए न आए अदा-ए-चारागरी मुझे तो है ये भरोसा कि चारासाज़ है तू फ़ना नहीं है अजल उम्र-ए-जावेदानी है वजूद है वो हक़ीक़त कि जिस का राज़ है तू क़ुबूल कर मिरी दाद ऐ मिरी सियह-बख़्ती हरीफ़-ए-ज़ुल्मत-ए-तन्हाई-ए-दराज़ है तो नवाज़िशें तिरी मुबहम सही मगर ऐ दोस्त ये ए'तिबार है क्या कम कि दिल-नवाज़ है तू बड़े मराहिल-ए-दुश्वार से गुज़रना है नियाज़ जादा है और मंज़िल-ए-नियाज़ है तू ये मानता है ज़माना कि मैं हूँ नाज़िश-ए-सब्र ये राज़ कोई न समझा कि मेरा नाज़ है तू है सर ख़ुशी में तुझे पास-ए-ग़म-कशाँ 'मानी' अजीब रिंद-ए-ख़ुदा-तर्स-ओ-पाक-बाज़ है तू