ये ख़ाकी आग से हो कर यहाँ पे पहुँचा है ख़मीर उठा था जहाँ से वहाँ पे पहुँचा है निगाह-ए-हुस्न ने तरतीब उल्टी कर डाली कि तीर निकला नज़र से कमाँ पे पहुँचा है अभी तलक जो फ़िदा-ए-ब-नाम-ए-इश्क़ रहा जो होश आया तो सूद-ओ-ज़ियाँ पे पहुँचा है मैं ज़ाहिरन तो सुख़न से ब-ख़ूब वाक़िफ़ हूँ दरूँ का अक्स अगरचे ज़ियाँ पे पहुँचा है ख़िज़ान-ए-हिज्र में गुलशन में फूल खिलने लगे गज़ंद ये भी दिल-ए-ना-तवाँ पे पहुँचा है