ये ख़ौफ़ कम है मुझे और चमको जब तक हो सियाह रात के सन्नाटो तुम भी कब तक हो मुसाफ़िरो कहीं तन्हाइयाँ न बन जाना कि साथ हो भी अगर तुम तो इक सबब तक हो ये कज-अदाई बहुत कम नसीब होती है तुम अपने ग़म में अकेले हो फिर भी सब तक हो जो लोग लौट के ख़ुद मेरे पास आए हैं वो पूछते हैं कि 'अशहर' यहीं पे अब तक हो