ये किस ख़याल की मौजूदगी सताती है मिरे वजूद में इक शाम ढलती जाती है ये रहगुज़र जो तिरी सम्त ले के जाती है इसी के बीच कहीं गुमरही भी आती है हमेशा देर से खुलता है क्यों ज़माने पर वो रास्ता जिसे आवारगी बनाती है किसे तमीज़ जो रंगों को चख के बतलाए ये आँख है जो सभी ज़ाइक़े बताती है वो रो पड़े तो शजर उस के साथ रोते हैं वो हँस पड़े तो सबा तालियाँ बजाती है उसी से दश्त की आब-ओ-हवा सलामत है वो इक अदा जो तिरे वहशियों को आती है