ये क्या हुआ कि हर इक रस्म-ओ-राह तोड़ गए जो मेरे साथ चले थे वो साथ छोड़ गए वो आइने जिन्हें हम सब अज़ीज़ रखते थे वो फेंके वक़्त ने पत्थर कि तोड़ फोड़ गए हमारे भीगे हुए दामनों की शान तो देख फ़लक से आए मलक और गुनह निचोड़ गए बिफरती मौजों को कश्ती ने रौंद डाला है ख़ुशा वो अज़्म कि तूफ़ाँ का ज़ोर तोड़ गए रहेगी गूँज हमारी तो एक मुद्दत तक हमारे शे'र कुछ ऐसे नुक़ूश छोड़ गए उन आए दिन के हवादिस को क्या कहूँ 'सादिक़' मिरी तरफ़ ही हवाओं का रुख़ ये मोड़ गए