ये मान लेने में ऐसी भी क्या बुराई है समझ में देर से इक अच्छी बात आई है दिया है तुम ने ब-सद ज़ो'म इंतिहा का नाम जिसे वो मरहला-ए-शौक़ इब्तिदाई है हैं तुझ से बढ़ के यहाँ तेरे सारे हम-साए मिरे ख़ुदा ये तिरी कैसी किबरियाई है वो जिन को कर गया बे नूर आगही का तिलिस्म कहाँ इन आँखों को फिर सुबह रास आई है ब-ज़िद हैं वो भी कि मैं उन ही की तरह सोचूँ वो जिन से दूर का रिश्ता न आश्नाई है बताऊँ क्या उसे आशोब-ए-रोज़गार 'आसिम' जो मेरे वास्ते वज्ह-ए-ग़ज़ल-सराई है