ये मस्लहत है हक़ीक़त को ख़्वाब लिखना है रुख़-ए-सियह को यहाँ आफ़्ताब लिखना है महक रही हैं कई जिन में फूल की यादें मुझे कुछ ऐसे ख़तों के जवाब लिखना है ज़लील-ओ-ख़्वार थे कल तक जो वक़्त के हाथों ये हुक्म है उन्हें इज़्ज़त-मआब लिखना है सदी के चेहरे पे बिखरा है जो लहू अपना इसी लहू से मुझे इंक़लाब लिखना है लगे हैं दाग़ जो इंसानियत के दामन पर जबीन-ए-वक़्त पे उन का हिसाब लिखना है कभी जो देखा था मेरी उदास आँखों ने तुम्हारे नाम वही एक ख़्वाब लिखना है चराग़-ए-फ़िक्र से 'इरफ़ान' रौशनी ले कर किताब-ए-शब का मुझे इंतिसाब लिखना है