ये न समझो कि किसी दर्द के इज़हार में थी आरज़ू वक़्त के टूटे हुए पिंदार में थी जाने क्या ढूँढता फिरता था यहाँ मेरा वजूद इक उदासी मिरे घर के दर-ओ-दीवार में थी मेरी तख़्ईल में अल्फ़ाज़ की ज़ंजीरें थीं ज़िंदगी वर्ना ज़माने तिरी रफ़्तार में थी करती फिरती थी उजालों की क़बा मेरी तलाश और मैं थी कि अँधेरों के किसी ग़ार में थी लोग समझे ही नहीं मेरे हुनर को वर्ना मुझ में फ़नकार था पोशीदा मैं फ़नकार में थी