ये रोज़ हश्र का और शिकवा-ए-वफ़ा के लिए ख़ुदा के सामने तो चुप रहो ख़ुदा के लिए इलाही वक़्त बदल दे मिरी क़ज़ा के लिए जो कोसते थे वो बैठे हैं अब दुआ के लिए भँवर से नाव बचे तेरे बस की बात नहीं ख़ुदा पे छोड़ दे ऐ नाख़ुदा ख़ुदा के लिए हमारे वास्ते मरना तो कोई बात नहीं मगर तुम्हें न मिलेगा कोई वफ़ा के लिए हज़ार बार मिले वो मगर नसीब की बात कभी ज़बाँ न खुली अर्ज़-ए-मुद्दआ के लिए कोई ज़रूर है दीदार-ए-आख़िरी में नक़ाब हज़ार वक़्त पड़े हैं तिरी हया के लिए मुझे मिटा तो रहे हो मआल भी सोचो ख़ता मुआ'फ़ तरस जाओगे वफ़ा के लिए वो जान कर मुझे तन्हा मिरी नहीं सुनते कहाँ से लाऊँ ज़माने को इल्तिजा के लिए मिरे जले हुए तिनकों की गर्मियाँ तौबा खुला हुआ है गरेबान-ए-गुल हवा के लिए मरीज़ कितना था ख़ुद्दार जान तक दे दी मगर ज़बाँ न खुली अर्ज़-ए-मुद्दआ के लिए वो इब्तिदा-ए-मोहब्बत वो एहतियात-ए-कलाम बनाए जाते थे अल्फ़ाज़ इल्तिजा के लिए ज़रा मरीज़-ए-मोहब्बत को तुम भी देख आओ कि मनअ' करते हैं अब चारागर दवा के लिए 'क़मर' नहीं है वफ़ादार ख़ैर यूँही सही हुज़ूर और कोई ढूँढ लें वफ़ा के लिए