ये शाम का बढ़ता हुआ साया है कि मैं हूँ ता-हद्द-ए-नज़र आँख में सहरा है कि मैं हूँ आख़िर तुझे ये फ़ैसला करना ही पड़ेगा तेरे लिए बेहतर तिरी दुनिया है कि मैं हूँ तस्दीक़ जो तू ने मिरे होने की अभी की ये देख के मैं ने भी ये सोचा है कि मैं हूँ झिलमिल कभी एहसास में बिखरी तो ये सोचा महताब किसी झील में उतरा है कि मैं हूँ ऐसे ही तज़ब्ज़ुब में पड़ा सोच रहा हूँ बादल ही बहुत टूट के बरसा है कि मैं हूँ मंज़र जो ये देखा है तो दिल काँप उठा है ये शाख़ से टूटा हुआ पत्ता है कि मैं हूँ उन आँखों में क्या जानिए क्या बात है 'अहसन' देखा जो किसी ने यही समझा है कि मैं हूँ