ये सोचो ख़ुद भी क्या अच्छा नहीं है किताबों में तो सब लिक्खा नहीं है बताऊँ क्या है कितनी दूर मंज़िल कि मैं ने रास्ता नापा नहीं है जिला बख़्शूँगा मैं तारीकियों को उजालों से कोई वा'दा नहीं है हवाओं की भी कुछ मजबूरियाँ हैं जो बादल छा के भी बरसा नहीं है मैं ये परखूँ है तुम में ज़र्फ़ कितना कि देखूँ ज़र्फ़ है भी या नहीं है मैं कैसे ग़म को बाँटूँ दोस्तों में कि ग़म है ताश का पत्ता नहीं है है तेरी ज़ेहनियत का रंज वर्ना जो दिल पर ज़ख़्म है गहरा नहीं है हो जो भी ख़ुद-शनासी का ज़रीया मगर 'अब्बाद' आईना नहीं है