ये तिरा बाँकपन ये रानाई रश्क-ए-महताब तेरी ज़ेबाई हुस्न तेरा अजब करिश्मा है एक आलम बना तमाशाई याद आया मुझे बदन तेरा दूर क़ौस-ए-क़ुज़ह जो लहराई जब से शम-ए-वफ़ा जलाई है अंजुमन बन गई है तन्हाई यूँ गुज़रते हैं देख कर मुझ को जैसे मुझ से नहीं शनासाई दीप यादों के जल ही जाते हैं छेड़ देती है जब भी पुर्वाई नश्तर-ए-ग़म न जिस को रास आया ज़ीस्त उस को कभी न रास आई एक रू-ए-हसीं नज़र आया अब चराग़ों में रौशनी आई इश्क़ की ख़ुद-सुपुर्दगी देखी ख़ुद तमाशा बना तमाशाई