ये तिरी ख़ल्क़-नवाज़ी का तक़ाज़ा भी नहीं कहीं दरिया है रवाँ और कहीं क़तरा भी नहीं अपने आक़ाओं के ऐबों को महासिन समझे इतनी पाबंद-ए-अक़ीदत तो रेआया भी नहीं इख़्तियारात से हक़ तक हैं ज़बानी बातें दस्तख़त क्या किसी काग़ज़ पे अँगूठा भी नहीं कोई इम्कान नहीं है किसी ख़ुश-फ़हमी का चारा-गर तुम हो तो फिर ज़ख़्म को भरना भी नहीं इश्तिहारात लगे हैं मिरी ख़ुश-हाली के और थाली में मिरी ख़ुश्क निवाला भी नहीं ये उजाला कोई साज़िश है ये जुगनू है फ़रेब सुब्ह से पहले चराग़ों को बुझाना भी नहीं