ये तो नहीं फ़रहाद से यारी नहीं रखते हम लोग फ़क़त ज़र्बत-ए-कारी नहीं रखते क़ैदी भी हैं इस शान के आज़ाद तुम्हारे ज़ंजीर कभी ज़ुल्फ़ से भारी नहीं रखते मसरूफ़ हैं कुछ इतने कि हम कार-ए-मोहब्बत आग़ाज़ तो कर लेते हैं जारी नहीं रखते जीते हैं मगर ज़ीस्त को आज़ार समझ कर मरते हैं मगर मौत से यारी नहीं रखते मेहमान-सरा दिल की गिरा देते हैं पल में हम सदक़ा-ए-जारी को भी जारी नहीं रखते तन्हा ही निकलते हैं सर-ए-कू-ए-मलामत हमराह कभी ज़िल्लत-ओ-ख़्वारी नहीं रखते