ये उस की मर्ज़ी कि मैं उस का इंतिख़ाब न था वगरना मेरे मुक़द्दर में क्या जनाब न था कुछ इस लिए तिरे गुलशन से मैं पलट आया तमाम फूल वहाँ थे मगर गुलाब न था बिछड़ते वक़्त हमारे लबों में चुभने लगे सवाल ऐसे कि जिन का कोई जवाब न था जिसे भी चाहा उसे बे-हिसाब चाहा कि हमारे दिल में मियाँ शो'बा-ए-हिसाब न था गुलू-ए-ख़ुश्क से तीर-ए-सितम को तोड़ दिया ये बचपने का था आलम अभी शबाब न था मैं इक ज़माने में 'हाशिम-रज़ा' पयम्बर था मोहब्बतों का मगर साहिब-ए-किताब न था