ये वक़्त रौशनी का मुख़्तसर है अभी सूरज तुलू-ए-मुंतज़र है शहादत लफ़्ज़ की दुश्वार-तर है किताबों में बहुत ज़ेर-ओ-ज़बर है अभी खुलने को है दर आसमाँ का अभी इज़हार का प्यासा बशर है ये दुनिया एक लम्हे का तमाशा न जाने दूसरा लम्हा किधर है जो देखा है वो सब कुछ है हमारा जो अन-देखा है वो उम्मीद भर है मैं ख़ुद ख़ाशाक-ए-गिरवीदा हूँ वर्ना मिरे हाथों में तिनका शाह पर है फिर इस के ब'अद बस हैरानियाँ हैं ख़बर वाला भी ख़ासा बे-ख़बर है मिरा नारा है जंगल आग जैसा मिरा कलमा शिकस्ता बाल-ओ-पर है ज़बाँ मेरी सियासत चाटती है कि इस का ज़ाइक़ा शीर-ओ-शकर है ये अंधी प्यास का मौसम है 'अहमद' समुंदर रौशनी का बे-असर है