यूँ आ के शाम-ए-दर्द ब-रंग-ए-सहर गई चेहरे से मेरे धूप ग़मों की उतर गई साइल की तरह लोग सफ़ों में खड़े मिले जिस रहगुज़ार-ए-ज़ीस्त पे मेरी नज़र गई हम रह-रवान-ए-शौक़ की क़िस्मत न पूछिए मंज़िल जिसे भी समझा वो मंज़िल गुज़र गई वो जान-ए-आरज़ू कि जो थी शम-ए-अंजुमन दिल ढूँढता है उस को न जाने किधर गई इक शक्ल-ए-दिलरुबा जिसे देखा था ख़्वाब में तस्वीर की तरह मिरे दिल में उतर गई जिस बज़्म-ए-दोस्ताँ में सुनाते थे हम ग़ज़ल अफ़्सोस सद अफ़्सोस वो महफ़िल बिखर गई अब के बहार आई है मानिंद-ए-आइना देखा 'कमाल' मैं ने तो सूरत निखर गई