यूँ अश्क बरसते हैं मिरे दीदा-ए-तर से जिस तरह से सावन की घटा झूम के बरसे हाँ अश्क-ए-नदामत जो गिरे दीदा-ए-तर से वो दामन-ए-इस्याँ पे नज़र आए गुहर से माहौल तो बदला है मिरी जेहद ने अक्सर हाँ मैं नहीं बदला कभी माहौल के डर से दुनिया न कहीं मुझ को निगाहों से गिरा दे अब इतना गिरा दो न मुझे अपनी नज़र से देखे जो कोई सादा-मिज़ाजी तो ये समझे वाक़िफ़ ही नहीं आप किसी ऐब-ओ-हुनर से जिस राह में गुज़री है मिरे सर पे क़यामत सौ बार तो गुज़रा हूँ उसी राहगुज़र से इस वक़्त जो गुज़री है न पूछो उसे 'वसफ़ी' टकराई है जब उन की नज़र मेरी नज़र से