यूँ भी गुज़री हैं मिरी शाम-ओ-सहर पानी में अश्क बन बन के बहा ख़ून-ए-जिगर पानी में क्या डराएँगे ये आफ़ात-ए-ज़माना हम को हम बना लेते हैं जब राह-ए-सफ़र पानी में सख़्त से सख़्त भी पत्थर न रहा फिर पत्थर अक्सर आया है नज़र ऐसा असर पानी में तुम इसी तौर मिरे दिल में रहा करते हो जिस तरह रहता है पोशीदा गुहर पानी में जज़्बा-ए-शौक़-ओ-तसव्वुर की बदौलत अक्सर देखता रहता हूँ मैं अक्स-ए-क़मर पानी में ख़्वाहिश-ए-ऐश-ओ-तरब क्यूँ हो ज़माने की उसे ज़िंदगी होती रही जिस की बसर पानी में रौशनी देती वो कैसे रह-ए-उल्फ़त पे 'रईस' शम-ए-उम्मीद जलाई थी मगर पानी में