यूँ दिल है सर-ब-सज्दा किसी के हुज़ूर में जैसे कि ग़ोता-ज़न हो कोई बहर-ए-नूर में हँस हँस के कह रही है चमन की कली कली आता है लुत्फ़ हुस्न को अपने ज़ुहूर में साक़ी निगाह-ए-मस्त से देता है जब कभी लगते हैं चार चाँद हमारे सुरूर में खाएँ जनाब-ए-शैख़ फ़रेब-ए-क़यास-ओ-वहम ये कैफ़-ए-जाँ-नवाज़ कहाँ चश्म-ए-हूर में मिस्ल-ए-कलीम कौन सुने लन-तरानियाँ मेरे लिए कशिश ही कहाँ कोह-ए-तूर में बेश अज़ दो हर्फ़ अपनी नहीं दास्तान-ए-दर्द हम गिर के आसमान से अटके खजूर में ये शोख़ियाँ कलाम में यूँही नहीं 'अमीं' पढ़ने चले हैं आप ग़ज़ल रामपूर में