यूँ फुर्क़तों में सुलगता है याद का मौसम कि जैसे दश्त-ए-जुनूँ जाग उठा है यक-दम हमें ख़बर थी कभी काम आ ही जाएगा जलाया दिल को अगर शाम हो गई मद्धम वो दूर है तो यूँ साकित हुआ चमन सारा रुख़-ए-गुलाब पे जैसे रुकी हुई शबनम जुनूँ में माँग लिया था कमाल-ए-दिलदारी सो इज़्न-ए-इश्क़ है ये फ़ासला रहे क़ाएम हमारे सोज़-ए-जुनूँ से जो आँख ने देखा हमारे बीच का हर फ़ासला हुआ मुबहम हो जैसे फूल कोई नालाँ अपनी ख़ुशबू से तमाम उम्र वो मुझ से यूँही रहा बरहम नहीं लिखेंगे कोई बात आज 'नीलम' की ग़ज़ल के शे'रों में ये मशवरा हुआ बाहम