यूँ गँवाता है कोई जान-ए-अज़ीज़ ज़िंदगी होती तो हम रखते अज़ीज़ क्या बताएँ अब बिखर जाने के ब'अद आशियाँ था या हमें तिनके अज़ीज़ ढूँढता है आज कुंज-ए-आफ़ियत दिल कभी जिस को थे हंगामे अज़ीज़ हुस्न था उस शहर का आवारगी और हमें थे पाँव के छाले अज़ीज़ ये न क़िस्सा है न अंदाज़-ए-बयाँ ये मिरा अहवाल है यार-ए-अज़ीज़ घर में जी लगता नहीं और शहर के रास्ते लगते नहीं अपने अज़ीज़ इस तरह क्या ऐ ग़ुबार-ए-दिल कोई रक़्स करता है सर-ए-कू-ए-अज़ीज़ साए हैं जितने गुरेज़ाँ धूप से धूप को हैं उतने ही साए अज़ीज़ या तअल्लुक़ कुछ न था या आप को ग़म हमारे हो गए इतने अज़ीज़ सामने आते नहीं और ख़्वाब में मुँह छुपा लेते हैं दुज़दान-ए-अज़ीज़ आँख है या सैर-गाह-ए-रोज़-ओ-शब वक़्त है या जादा-ए-उम्र-ए-अज़ीज़ क्या अजब जो दर्द-ओ-ग़म रुख़्सत हुए वो भी थे आख़िर 'रसा' अपने अज़ीज़