यूँ ही सर चढ़ के हर इक मौज-ए-बला बोलेगी हम जो ख़ामोश रहेंगे तो हवा बोलेगी बोलता रहता है जो आज सर-ए-शाख़-ए-अना चुप सी लग जाएगी जिस रोज़ फ़ना बोलेगी तुझ से उम्मीद किसे है मिरी लैला-ए-हयात महमिल-ए-नाज़ से क्या चश्म-ए-अता बोलेगी वो तो रहता है यूँही अपने गुलिस्तान में गुम लब-ए-ख़ामोश से क्या बर्ग-ए-हिना बोलेगी मौसम-ए-नारा-ए-बुलबुल भी कभी आएगा इस से मायूस न हो ख़ल्क़-ए-ख़ुदा बोलेगी