यूँ हुजरा-ए-ख़याल में बैठा हुआ हूँ मैं गोया मिरा वजूद नहीं वाहिमा हूँ में फैला है जब से घर में समुंदर सुकूत का बे-चारगी की छत पे खड़ा चीख़ता हूँ मैं देखो मिरी जबीं पे मिरे अहद के नुक़ूश रक्खो मुझे सँभाल के इक आइना हूँ मैं अब तक शब-ए-क़याम का इक सिलसिला भी था अब आफ़्ताब बन के सफ़र पर चला हूँ मैं ख़ुद से तो रू-शनास अभी तक न हो सका ये इत्तिफ़ाक़ है कि जो तुम से मिला हूँ मैं