यूँ तिरी चाप से तहरीक-ए-सफ़र टूटती है जैसे पलकों के झपकने से नज़र टूटती है बोझ अश्कों का उठा लेती हैं पलकें मेरी फूल के वज़्न से कब शाख़-ए-शजर टूटती है ज़िंदगी जिस्म के ज़िंदाँ में ये साँसों की सलीब हम से तोड़ी नहीं जाती है मगर टूटती है कोई जुगनू कोई तारा नहीं लगता रौशन ज़ुल्मत-ए-शब में जब उम्मीद-ए-सहर टूटती है कितने अंदेशों की किर्चें सी बिखर जाती हैं एक चौड़ी भी कलाई से अगर टूटती है अब सिवा नेज़े पे सूरज नहीं आता है 'सलीम' अब क़यामत भी ब-अंदाज़-ए-दिगर टूटती है